गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

भारत माता की जय सिंध माता की जय वन्देमातरम जय हिंद,,,जय,,,सिन्धी प्रदेश

भाषा और संस्कृति को बचाने के लीये केंद्र सरकार राष्ट्रपति जी सिन्धी प्रदेश का गठन करे । Vinodmeghwaniएकखबर संपादक: भारत मे 1948 में धर समित्ति का गठन सरकार ने किया था जिसने भाषाई आधार पर 14 राज्यो का गठन किया उस समय सिन्धी प्रदेश का गठन हो सकता था पर कुछ नेताओं की वजह से न बन सका1960 भाषा के आधार पर गुजरता ओर महाराष्ट्र बने उसके बाद भी भाषा ओर संस्कृति को बचाने के नाम पर राज्य बने । हम केंद्र सरकार और राष्ट्रपति महोदय से निवेदन करते है सिन्धी प्रदेश का गठन करे और अपने संज्ञान में ले । (सिन्धी प्रदेश सँघर्ष समित्ति ) महासचिव विनोद मेघवानी
  राज्यों का पुनर्गठन
भारत में राज्यों का पुनर्गठन एवं नवीन राज्यों की मांग
सन 1947 में देश को आजादी मिलने के बाद राज्यों का पुनर्गठन हुआ । भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर नये राज्यों के निर्माण की मांग हुई । 14 राज्य ,6 भारत में राज्यों का पुनर्गठन एवं नवीन राज्यों की मांग
स्वतंत्रता के बाद राज्यों के पुनर्गठन एवं निर्माण के आधारों की खोज की जाने लगी ताकि विभिन्न प्रांतीय इकाईयों का गठन प्रशासनिक सुविधाओं, राष्ट्रीय विकास एवं क्षेत्रीय विकास के संदर्भ में किया जा सके। इसी कारण प्रारंभ में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत प्रांतीय व्यवस्था को बनाए रखा गया ताकि नवीन राज्यों के आधारों की खोज की जा सके तथा राज्यों का पुनर्गठन एवं निर्माण तक भारत संघ का प्रशासन सुचारू रूप से चलता रहे। इस व्यवस्था के अंतर्गत क्षेत्रीय प्रशासन को चार वर्गों में विभाजित किया गया और प्रशासनिक इकाइयों को । A, B, C, D चार वर्गों में रखा गया। । A वर्ग में 9 ब्रिटिश प्रांत, B वर्ग में 8 बड़े रियासत C वर्ग में 10 मध्यम तथा छोटे आकार के रियासत तथा D वर्ग में कुर्ग को रखा गया। लेकिन यह व्यवस्था अस्थायी थी और राज्य पुनर्गठन के आधारों के खोज के साथ ही नवीन राज्यों का निर्माण एवं पुनर्गठन किया जाना था। सरकार ने राज्यों के पुनर्गठन के आधारों की खोज के लिए 1948 में ही ‘धर समिति’ का गठन किया जिन्होंने भाषाई आधार पर राज्यों की मांग का विरोध किया और प्रशासनिक सुविधा के आधार पर राज्य पुनर्गठन का सुझाव दिया। सरकार द्वारा धर समिति के सुझाव के संदर्भ में भी कांग्रेस की एक समिति का गठन किया गया जिसने भी भाषाई राज्यों की मांग का समर्थन नही किया। इस समिति में जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल तथा पट्टाभि सीतारमैया शामिल थे। यह जे.वी.पी. समिति कहलाती है। इस समिति द्वारा भाषाई राज्यों को मान्यता नहीं दिए जाने के साथ ही भाषाई राज्यों की मांग का आंदोलन तीव्र होने लगा। विशेषकर तेलुगूभाषी लोगों का अलग राज्य की मांग का आंदोलन उग्र होने लगा, ऐसे में आंध्र प्रदेश राज्य अधिनियम 1983 द्वारा 11 तेलगु भाषी जिलो को मिलाकर आंध्र राज्य बनाया गया।

आंध्र राज्य को भाषाई आधार पर मान्यता देने के साथ ही विभिन्न क्षेत्रों से भाषाई राज्यों की मांग बढ़ने लगी। राज्यों के पुनर्गठन से संबंधित ‘‘फजल अली कमिटी’’ ने भाषाई राज्यों के पक्ष में तर्क दिया।

1) भाषाई प्रशासनिक क्षेत्र का निर्धारण ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भी किया जाता रहा है।

2)1951 की जनगणना के अनुसार देश में 844 भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन 91 प्रतिशत लोग मात्र 14 भाषाएं ही बोलते हैं। इस आधार पर 14 राज्य की अनुशंसा की गई।

3) 14 भाषाओं के भौगोलिक वितरण में एकरूपता है अतः एक विशिष्ट भाषाई क्षेत्र एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र भी है।

4) समिति द्वारा प्रश्नावली तैयार कर के राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में जनमत सर्वेक्षण करवाया गया जिसमें 90 प्रतिशत लोग भाषाई राज्य के पक्ष में थें।

5) भाषाई राज्यों के निर्माण से राज्यों का प्रशासन अधिक दक्षता एवं कुशलता से किया जा सकता है क्योंकि सांस्कृतिक समरूपता की स्थिति प्रशासन में सहयोगी होती है।

उपरोक्त आधार पर राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 पारित किया गया जिससे भाषाई राज्यों का निर्माण संविधान प्रक्रिया से किया गया। यह माना गया कि भाषाई राज्यों के निर्माण से प्रशासनिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सीमाओं का भी निर्धारण सहजता से किया जा सकता है। इस प्रकार भाषाई आधारपर 14 राज्यों का निर्माण किया गया, इसके अतिरिक्त 6 संघ राज्य क्षेत्र का भी निर्माण किया गया। संघ राज्य ऐसे राज्य क्षेत्र थे जिनकी सांस्कृतिक स्थिति आसपास के क्षेत्रों से भिन्न थी लेकिन संसाधनों के अभाव के कारण स्वतंत्र विकास करने में सक्षम नहीं थे। अतः आर्थिक, सांस्कृतिक आधार पर इनके प्रशासन एवं विकास का दायित्व केन्द्र को सौंपा गया। 14 राज्यों के पुनर्गठन के बाद कई अन्य राज्यों का निर्माण भी भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर किया गया । गुजरात एवं मुम्बई राज्य को मुम्बई राज्य के अंतर्गत रखा गया। अतः गुजराती और मराठी भाषा में विभिन्नता के आधार पर गुजरातियों द्वारा गुजरात राज्य की मांग तीव्र हो गई। इसी संदर्भ में मुम्बई पुनर्गठन अधिनियम 1960 द्वारा मुम्बई को भाषाई आधार पर गुजरात एवं महाराष्ट्र में विभाजित कर दिया गया। 1962 में नागालैण्ड राज्य अधिनियम द्वारा नागालैण्ड राज्य की रचना की गई। यह पहले असम राज्य का अंग था। पुनः पंजाब पुनर्गठन अधिनियम 1966 द्वारा

भाषाई, सांस्कृतिक एवं आर्थिक आधार पर पंजाब राज्य को पंजाब, हरियाणा राज्यों में और चंडीगढ़ संघ राज्य क्षेत्र में बांटा गया। 1970 में हिमाचल प्रदेश को संघ राज्य से राज्य में परिवर्तित किया गया। पूर्वोत्तर क्षेत्र पुनर्गठन अधिनियम 1971 द्वारा मणीपुर, त्रिपुरा और मेघालय को राज्य का दर्जा दिया गया और मिजोरम तथा अरूणाचल प्रदेश को संघ राज्य क्षेत्र की सूची में सम्मिलित किया गया। मिजोरम राज्य अधिनियम 1986 द्वारा मिजोरम को, अरूणाचल प्रदेश राज्य अधिनियम 1986 द्वारा अरूणाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा दिया गया। गोवा, दमन एवं दीव पुनर्गठन अधिनियम 1987 द्वारा गोवा को राज्य का दर्जा दिया गया। उपरोक्त राज्यों के निर्माण का आधार मुख्यतः सांस्कृतिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक था। इन राज्यों के निर्माण के बाद भी नवीन राज्यों की मांग उठती रही जिसका आधार आर्थिक पिछड़ेपन, भौगोलिक स्थिति तथा सांस्कृतिक भिन्नता थी। इनमंे उत्तराखण्ड (उत्तरांचल), छत्तीसगढ़ एवं झारखण्ड राज्य से संबंधित आंदोलन व्यापक एवं प्रभावी रूप से चलाए जा रहे थे। इन क्षेत्रों की स्थिति आर्थिक, सामाजिक रूप से पिछड़ी थी और तत्कालीन राज्यों के अंतर्गत इनकी विकास की प्रक्रिया अत्यंत धीमी थी। इसी संदर्भ में नवीन राज्यों के पुनर्गठन की मांग राजनीतिक एवं जनता के स्तर पर भी तीव्र होने लगी। ऐसे में सन् 2000 ई. में इन तीनों राज्यों का निर्माण किया गया। फलस्वरूप वर्तमान में 28 राज्य और 7 केन्द्रशासित प्रदेश विद्यमान हैं। इन राज्यों के पुनर्गठन व निर्माण के साथ यह उम्मीद की जा रही थी कि पूर्व के कई छोटे राज्यों के समान इन राज्यों की भी विकास की प्रक्रिया अत्यंत तीव्र होगी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ राज्य में विकास की प्रक्रिया अपेक्षाकृत तीव्र हुई। लेकिन गठन के लगभग 10 वर्षों के बाद भी यह भारत के पिछड़े राज्यों में ही सम्मिलित है। झारखण्ड एक ऐसे राज्य का उदाहरण है जहां पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं लेकिन विकास की प्रक्रिया अत्यन्त धीमी है जबकि यह उम्मीद की जा रही थी कि बिहार से अलग होने के बाद खनिज, वन, जल संसाधन के उपयोग द्वारा तीव्र आर्थिक विकास कर सकेगा लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसकी तुलना में उत्तरांचल एवं छत्तीसगढ़ में विकास की प्रक्रिया तीव्र है। इन तीनों राज्यों की स्थापना एवं विकास की प्रक्रिया देखने पर यह स्पष्ट होता है कि केवल नवीन राज्यों की स्थापना विकास का मुख्य आधार नही हो सकता। आवश्यकता उपलब्ध संसाधनों के उचित नियोजन एवं विकास की प्रक्रिया को सही तरीके से लागू करने की है। झारखण्ड जैसे राज्य की अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था, अस्थिर सरकार, विधि व्यवस्था की विफलता, उग्रवादी समस्याओं का समाधान न होना एवं राजनीतिक, प्रशासनिक भ्रष्टाचार विकास में बाधक बना हुआ है। तुलनात्मक रूप से उत्तरांचल में राजनीतिक स्थिरता एवं अनुकूल माहौल के कारण विदेशी निवेश के साथ ही पर्यटन उद्योग में वृद्धि विकास को सही दिशा में ले जा रही है। छत्तीसगढ़ में भी उग्रवाद की समस्या विकास में प्रमुख बाधक है। संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद छत्तीसगढ़ एवं झारखण्ड जैसे राज्यों में विदेशी निवेश का स्तर नगण्य है। अब आवश्यकता न केवल  राज्यों की विधि व्यवस्था में सुधार की है, बल्कि स्थिर एवं सुरक्षित राजनीतिक प्रशासनिक माहौल बनाए जाने की है ताकि विदेशी पंूजी प्रवाह, तकनीकी निवेश के स्तर में सुधार हो। वर्तमान में इन राज्यों के अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि केवल नवीन राज्यों का निर्माण ही क्षेत्रीय विकास का आधार नहीं हो सकता है। वर्तमान झारखण्ड सरकार की स्थिरता एवं राजनीतिक दर्शन पर झारखण्ड का विकास बहुत कुछ निर्भर करता है।

अतः राज्यों की मांगों की औचित्यता का परीक्षण सूक्ष्मता से किया जाना चाहिए और नवीन राज्यों के पुनर्गठन व निर्माण के साथ ही विकास प्रक्रिया पर प्रभावकारी नियंत्रण केन्द्र द्वारा किया जाना चाहिए। नए प्रस्तावित राज्यों के विकास के मॉडल पहले ही तय किया जाना आवश्यक है। इसके लिए राज्य के सभी राजनीतिक दलों से गंभीर विचार विमर्श किया जाना चाहिए।

वर्तमान में भी कई राज्यों की मांग आर्थिक पिछड़ेपन एवं भौगोलिक सांस्कृतिक आधारों पर की जा रही है जैसे तेलंगाना, विदर्भ, बुंदेलखण्ड, गोरखालैण्ड जैसे राज्य की मांग के आंदोलन हो रहे हैं। इन राज्यों की मांग को केन्द्र सरकार अत्यंत गंभीरता से ले रही है। और इस संदर्भ में नवीन राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की बात हो रही है। लेकिन आवश्यकता है कि इन राज्यों के निर्माण के लिए उठाया गया कोई भी कदम इस बात पर आधारित हो कि राज्यों के पुनर्गठन के बाद सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्तरों पर विकास की प्रक्रिया तीव्र हो और जिन समस्याओं के कारण इन राज्यों की मांग की जा रही है  सरकार द्वारा इस संदर्भ ये सभी  राज्यों की मांग एवं सरकार की नीति जटिल समस्या बनी हुई है। ऐसे में स्पष्ट नीति का निर्धारण किया जाना आवश्यक है ताकि राज्यों के निर्माण को लेकर विरोधाभाषी स्थिति उत्पन्न न हो सके। हाल ही में राजस्थान, गुजरात एवं मध्य प्रदेश के भील क्षेत्रों को मिलाकर भिलिस्तान राज्य की मांग जोर पकड़ रही है। इसी तरह कई अन्य राज्यों की मांग भी राजनीति मुद्दा बन सकती हैं।

उत्तर प्रदेश को भी विभाजित कर पूर्वांचल राज्य, बुंदेलखण्ड राज्य तथा हरित प्रदेश राज्य में विभाजित करने की राजनीतिक मांग सामने आयी है। बिहार में मिथिलांचल की मांग भी सांस्कृतिक-भाषायी आधार पर उठायी जाती रही है। इस तरह वर्तमान संघीय ढांचे के अन्तर्गत विभिन्न राज्यों की मांग विभिन्न कारणों से हो रही है इनमें सबसे प्रमुख कारण आर्थिक विकास में विषमता एवं आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन है। तेलंगाना, बुंदेलखण्ड जैसे क्षेत्र राज्य के अन्य क्षेत्रों की तुलना में पिछड़ी अवस्था में हैं। आधारभूत संरचना का अभाव, गरीबी, बेरोजगारी एवं पिछड़ा हुआ सामाजिक सूचकांक इन क्षेत्रों को नवीन राज्य के गठन के लिए आधार उपलब्ध कराते हैं। लेकिन नवीन राज्य का पुनर्गठन ही विकास का मुख्य आधार नहीं हो सकता। ऐसे में केन्द्र की राज्य सरकारों को पिछड़े प्रदेशों तथा राज्य निर्माण के आंदोलनों पर अत्यंत गभीरता से विचार करना चाहिए। नवीन राज्य के निर्माण की होड़ उत्पन्न न हो इसका ध्यान आवश्यक रूप से रखा जाना चाहिए। वर्तमान में भारत संघ की आवश्यकता नवीन राज्यों के निर्माण प्रक्रिया में शामिल होना नहीं है बल्कि राष्ट्र का समग्र एवं संतुलित विकास  है। अतः पिछड़े प्रदेशों में आर्थिक विकास को त्वरित करना और इसके लिए पूंजी निवेश और बेहतर नियोजन प्रक्रिया अपनाया जाना आवश्यक है। सर्वप्रथम यह प्रयास होना चाहिए कि क्या वर्तमान राज्य के अन्तर्गत रह कर ही विकास किया जाना संभव है या नहीं? और यदि संभव है तो किस प्रकार की नियोजन प्रक्रिया अपनायी जाए अर्थात् विकास का मॉडल तय किया जाना चाहिए। विकास का मॉडल क्षेत्र की समग्र विकास प्रक्रिया पर आधारित होना चाहिए और इसके लिए तंत्र उपागम का प्रयोग किया जाए। यदि विकास की संभावना है तो नवीन राज्यों का पुनर्गठन व निर्माण आवश्यक नहीं माना जा सकता लेकिन यदि विकास का अनिवार्य शर्त नवीन राज्य की मान्यता प्रदान करना ही है तो राज्य के गठन की संभावना पर विचार किया जाना अपेक्षित है। यहां यह बात स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि राज्यों की मांग विकास आधारित है तो विकास की संभावना पर विचार किया जाना आवश्यक है और नवीन राज्य का गठन ही अनिवार्य शर्त प्रतीत होता है तो यह कदम उचित होगा। लेकिन विशुद्ध राजनीतिक कारणों से राजनीतिक दबाव द्वारा राज्य के गठन की मांग की जा रही है तो ऐसी मांगों को खारिज कर दिया जाना चाहिए। पुनः केन्द्र सरकार नवीन राज्यों की संभावना को राज्य पुनर्गठन समिति या आयोग का गठन कर भी परीक्षण कर सकती है।

अतः वर्तमान स्थिति में यह तय करना अत्यन्त आवश्यक है कि किन राज्यों के निर्माण की आवश्यकता है और किन राज्यों की मांग अनावश्यक और राजनीतिक कारणों से उत्पन्न हो रही है। इस संदर्भ में एक स्पष्ट राष्ट्रीय नीति आवश्यक है ताकि राज्यों के निर्माण को लेकर होने वाली राजनीति की दिशा क्षेत्रीय हितो के साथ ही राष्ट्रीय हितों की अनिवार्यता पर आधारित हों। अन्ततः राष्ट्र हित ही सर्वोपरि है और इसके लिए वर्तमान संघीय ढांचे के अन्तर्गत संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप प्रांतों या राज्यों का  पुनर्गठन व निर्माण किया जा सकता है लेकिन नवीन राज्यों की आवश्यकता एवं अनिवार्यता की युक्तियुक्तता का परीक्षण अत्यंत वैचारिक गंभीरता से किया जाना चाहिये एक खबर विनोद मेघवानी

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