रायपुर छतीसगढ़ सिन्धी प्रदेश सँघर्ष समिति ने आज 16 जून को सिंध के राजा दाहिरसेन को याद किया और संकल्प किया कि उनकी याद में ,,सिंध प्रदेश ,,,का अवश्य गठन किया जायेगा उनके बलिदान को व्यर्थ नही जाने दिया जायेगा जब तक गुजरात सरकार,,,कच्छ,,,में सिंध प्रदेश ,,,बनाने का आदेश नही देती तब तक सोशल मीडिया पर,,,,,सिंध प्रदेश ,,के लिये ,,,,,लेखन आंदोलन,,,,,जारी रहेगा,,,,महात्मा गांधी ,,,,,ने अंग्रेजों से बिना लड़े ,,देश को आजाद कराने की मुहिम ,,,रची थी,,ओर सिन्धी प्रदेश सँघर्ष समिति भी,,,,,सोशल मीडिया से लेख आंदोलन से गुजरात सरकार से,,,सिंध प्रदेश के लिये मुहिम ,,,चला रही है ,,,इस लेख को गुजरात सरकार तक,,,पुहुचाने ,,,का हर सिन्धी भारतीय नागरिक का कर्तव्य है ,,,आईये,,, आप को सिंध के राजा,,, दाहिरसेन की जीवनी से परिचित कराये
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सिन्धी प्रदेश सँघर्ष समिति
महासचिव विनोद मेघवानी
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16 जून को सिंध के अंतिम सम्राट के शहीदी दिवस पर विशेष
*अरबों की सेना के साथ बहादुरी से लड़े राजा दाहिरसेन, बहिन व बेटियां*
आज की तरह सिंध प्रांत इतना छोटा नहीं था। उसकी सीमाएं उत्तर में काश्मीर, कनौज, पंजाब तक, दक्षिण में कराची बंदरगाह और कच्छ गांधीधाम तक फैली थी। यहां के निवासी सम्पन्न, धनी, चतुर, वैज्ञानिक और अतिथि सत्कार के लिए दुनिया में प्रसिद्ध थे। यही कारण कि बाहर के राजाओं की दृष्टि अक्सर सिंध पर रहती थी। सिंध पर अरबों के आक्रमण के लगभग डेढ़ सौ साल पहले रायदेवल नाम का हिन्दु राजा शासन करता था। उसके बाद राय सहराय प्रथम, राय सहराय द्वितीय सिंघासन पर बैठे। राय घराने के राजाओं ने करीबन 137 साल तक शासन किया। चच नामक व्यक्ति राय सहराय द्वितीय का मंत्री था। राय सहराय द्वितीय के मरने के बाद चच ने उनकी विद्वा रानी सहंदी से विवाह किया और सन् 622 ई. में उसने सिंघासन संभाला। सम्राट चच ने अपने छोटे भाई चंद को प्रधानमंत्री बनाया और खुद अपने राज्य की निगरानी के साथ ही सीमाओं के विस्तार के लिए सेना लेकर निकल पढ़ा। इसी दौरान सन् 671 में प्राण त्यागे।
तब उनके पुत्र दाहिरसेन ने 12 वर्ष की अल्प आयु में सत्ता की बागडोर संभाली। तरूणावस्था तक उनके चाचा इन्द्र ने राज्य की व्यवस्था संभाली। परन्तु छह साल बाद ही चाचा इन्द्र का देहांत हो गया। उस समय दाहिरसेन की आयु 18 वर्ष थी। इस तरह सिंध की सत्ता का सम्पूर्ण भार दाहिरसेन पर आन पड़ा।
अरबों की सेना ने अनेक बार सिंध पर हमला किया लेकिन हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी। अंत में अरब के खलीफे ने अपने जवान भतीजे और नाती इमाम अलदीन मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में सिंध पर आक्रमण के लिए भारी संख्या में सैनिकों को रवाना किया। यह सेना समुद्री मार्ग और मकरान के रास्ते सिंध की ओर बढ़ी। मोहम्मद बिन कासिम का भारी लश्कर मुर्हरम माह की 10 तारीख सन् 711 में सिंध के देबल बंदरगाह पर कब्जा कर लिया। स्थिति का सामना करने के लिए राजा दाहिरसेन ने सिंध के कोने कोने में सन्यासियों को भेजा, जिन्होंने देशभक्ति की ज्वाला गांव गांव में जगाई। यह समाचार मोहम्मद बिन कासिम के गुप्तचरों को मिले। मोहम्मद बिन कासिम जानता था कि आक्रमण कर राजा दाहिरसेन को हराना मुश्किल है इसलिए उसने छल कपट के जरिये युद्ध जीतने की योजना बनाई। महाराजा दाहिरसेन की सेना में मोहम्मद अलाफी भागकर शरणागत हुआ था, जिसे मोहम्मद बिन कासिम के गुप्तचरों ने लालच देकर अपने पक्ष में कर लिया। इसी तरह महाराजा दाहिरसेन के सेनापति शमनी को भी लालचर देकर अरबों के षडयंत्र में शामिल कर लिया गया। बाद में सेनापति शमनी के सहयोग से ही कुछ सैनिक भी दुश्मन सेना से जा मिले। इसके बाद अरबों की सेना ने नीरनकोट पर हमला बोल दिया। मोहम्मद बिन कासिम रावनगर की ओर बढ़ा जहां लगातार 19 दिन युद्ध चला जिसमें महाराज दाहिरदसेन एवं उनके पुत्र जयसिंह ने बहादुरी के साथ अरबों की सेना से लोहा लिया। इससे अरबों की सेना बुरी तरह से डर गई।
मोहम्मद बिन कासिम जान चुका था, कि युद्ध में महाराजा दाहिरसेन को हराना मुश्किल है इसलिए उन्होंने एक और चाल चली। पुरूषों को महिलाओं के वस्त्र पहनाए गए और उन्होंने अरब सेना गिरफ्तार करके ले जा रही है, चिल्लाते हुए मदद की गुहार लगाई जिसे सुनकर महाराजा दाहिरसेन आगे बढे और महिलाओं से कहा कि मेरे होते हुए तुम्हे कोई गिरफ्तार नहीं कर सकता। महाराजा दाहिर सेन अकेले ही इन महिलाओं को बचाने के लिए सेना को पीछे छोड़ आगे निकल आए। जब मोहम्मद बिन कासिम ने देखा कि महाराजा दाहिरसेन काफी आगे निकल चुके हैं और सेना पीछे रह गई है। इसी बीच कुछ गद्दारों ने महाराजा दाहिरसेन पर अग्नि बाण चलाए जिससे वे बुरी तरह से घायल हो गए। महाराजा दाहिरसेन का हाथी बेकाबू हो गया और वह सेना को कुचलता हुआ नदी और बढ़ा। महावत ने हाथी को संभालने का प्रयास किया लेकिन वह नाकाम रहा। बुरी तरह से घायल महाराजा दाहिरसेन ने अंत में 16 जून 712 को प्राण त्याग दिए।
*बहिन व बेटी ने उठाई तलवार*
महाराजा दाहिरसेन की मृत्यु के बाद भी युद्ध समाप्त नहीं हुआ। बल्कि उनकी बेटी पदमादेवी एवं लाडीदेवी ने तलवार उठाई तथा किले की उंचाई से अपने सेनिकों के साथ अरब की सेना पर टूट पड़ी। काफी समय तक लड़ाई के पश्चात बहिन व बेटी दुश्मन की सेना से चारों और घिर गई तब नारीत्व की रक्षा के लिए अन्य स्त्रियों के साथ अंतःपुर में चिता में जलकर जौहर कर सतित्व प्रथा को अपनाया। इतना ही नहीं राजकुमार जयसिंह भी बहादुरी से लडे और अंत में वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी दो पुत्रियां परमाल एवं सूर्य ने भी अरब की सेना का बहादुरी से सामना किया । जब दोनो बहिने गिरफ्तार कर ली गई तब सूर्य एवं परमाल ने खलीफे के सामने शिकायत का बहाना बनाकर मोहम्मद बिन कासिम को खलीफे के हाथो मरवाकर प्रतिशोध लिया। अरब सेना उनके साथ कुछ बुरा न करे इसके लिए दोनो बहिने एक दूसरे को कटार घोंपकर शहीद हो गई और सतित्व की रक्षा की । तब से लेकर आज तक हर साल 16 जून का दिन शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
कहो गर्व से हम है सिंध से।।सिंधु से ही हिन्दू बना है।।।
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